Sunday, August 23, 2009

अमलतास

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था

वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था

शाखें पंखों की तरह खोले हुए

एक परिन्दे की तरह

बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर

सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको

और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के

बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!

आंधी का हाथ पकड़ कर शायद

उसने कल उड़ने की कोशिश की थी

औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!

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