Thursday, March 4, 2010

तेरे जाने से

तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं,
रात भी आई थी और चाँद भी था,
सांस वैसे ही चलती है हमेशा की तरह,
आँख वैसे ही झपकती है हमेशा की तरह,
थोड़ी सी भीगी हुई रहती है और कुछ भी नहीं,
होंठ खुश्क होते है, और प्यास भी लगती है,
आज कल शाम ही से सर्द हवा चलती है,
बात करने से धुआ उठता है जो दिल का नहीं,
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं
रात भी आई थी और चाँद भी था,
हाँ मगर नींद नहीं ...नींद नहीं....

आदत

सांस लेना भी कैसी आदत है
जीये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नही बदन मे कहीं
कोई साया नही है आँखों मे
पाव बेहिस हैं , चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से,कितनी सदियों से
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं
आदते भी अजीब होती हैं

Friday, February 26, 2010

तेरे उतारे हुए दिन

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी

इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...

कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी मसूरे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी....

बौछार

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल* में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल** शामिल था


तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में


तेरा बे को दबा कर बात करना
वॉव पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं ना खत मिला कोई
बहुत दिन हो, गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं

Khuda

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने...

काले घर में सूरज रखके
तुमने शायद सोचा था मेरे सब मुहरें पिट जाएँगे
मैंने एक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल दिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूर की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लमहा-लमहा जीना सीख लिया
मेरी ख़ुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई
मैंनें जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रुह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी...

Sunday, August 23, 2009

ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी

हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे

आँख लगाकर - कान बनाकर

नाक सजाकर -

पगड़ी वाला, टोपी वाला

मेरा उपला -

तेरा उपला -

अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से

उपले थापा करते थे


हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर

गोबर के उपलों पे खेला करता था

रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था

हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे

किस उपले की बारी आयी

किसका उपला राख हुआ

वो पंडित था -

इक मुन्ना था -

इक दशरथ था -

बरसों बाद - मैं

श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ

आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में

इक दोस्त का उपला और गया!

अमलतास

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था

वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था

शाखें पंखों की तरह खोले हुए

एक परिन्दे की तरह

बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर

सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको

और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के

बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!

आंधी का हाथ पकड़ कर शायद

उसने कल उड़ने की कोशिश की थी

औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!